मन में उठता है ये प्रश्न प्रखर
तरुवर बनु मैं या बनु प्रियवर
तरुवर बनी तो घाव कंकर के पाऊँगी
प्रियवर बनी तो आग़ोष में छुप जाऊंगी
तरुवर बनी तो तन्हा श्यामिल रात होगी
प्रियवर बनी तो रात भर मन की बात होगी
तरुवर बनी तो हर शाख कंपाती बरसात होगी
प्रियवर बनी तो हर पल याद वाली बरसात होगी
फिर आता है वह प्रश्न मुखर
तरुवर बनु मैं या बनु प्रियवर
तरुवर घाव सहकर भी फूलों संग मुस्कराये हैं
प्रियवर बाँहों में झूलकर भी मुरझाये है
तरुवर ने तन्हा रातों में पंछियों को गीत सुनाये हैं
प्रियवर ने रात भर दिल में अश्रु छुपाये हैं
तरुवर ने घनघोर बरसातों में भी भटके मुसाफिर बहलाये है
प्रियवर ने धीमी बरसातों में भी सूखे ख्वाब भिगाये हैं
पर क्यों आता है ये प्रश्न उभर
तरुवर बनु मैं या बनु प्रियवर
तरुवर भी तो कभी प्रियवर बन जाते है
मंद हवा से सबका आलिंगन कर जाते हैं
प्रियवर भी तो कभी तरुवर बन जाते है
क्रोध व्यथा द्वन्द सब बन मौन सह जाते है
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