बचपन के वो दिन भुलाऊँ कैसे?
हर एक बात बार बहा देते थे आंसू की नदी,
आज भर आये मन तो चुप हो जाऊं कैसे?
हर एक राह बुलाती कहती थी घर लौट जाने को,
आज जब मैं राह भूलूँ तो घर जाऊं कैसे?
दिन में कई बार रूठ्ते और मनाते...
अब कोई रुठ्ता भी नहीं तो किसी को मनाऊं कैसे?
Saturday, April 12, 2008
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